Pages

Tuesday, 6 March 2012

श्रीराम शर्मा आचार्य के कथन धरम के सम्बन्ध में:



"सृष्टि का सृष्टा एक ही है. वही उत्पादन, अभिवर्धन तथा परिवर्तन की सारी प्रक्रियाए अपनी योजनानुसार संपन्न करता है. ना उसका कोई साझीदार है और न सहायक ...एक ही सत्ता भिंनन-भिन्न प्रकार की हो गयी और समझा जाने लगा की जो जिस देवी देवता की पूजा पतरी करेगा वह उसी को अपना समझेगा और उसी की हिमायत करेगा ... ये मान्यता है आज के बहुदेववाद की. प्रकार सृष्टा का ही खंड विभाजन नही हुआ वरन अपने - अपने कुल-वंश, ग्राम, नगर के भी पृथक-पृथक देवी - देवता बन गए. विभाजन और संकीर्णता इतने तक ही सीमित नही रही, परमेश्वर का भी बंटवारा कर लिया गया. अनेक देवी - देवता बन कर खड़े हो गए. उनकी आकृति ही नही प्रकृति भी अपने को न पूजने दुसरे को पूजने पर वह देवता रुष्ट और तिरस्कार देने पर उतारू होने लगे. शारीरिक, मानसिक बिमारियों को उन्ही के रुष्ट का कारण माना जाने लगा. बहुदेववाद के पीछे अनेकानेक कथा कहानियां जोड़ी गयी और उनकी प्रशंसा से मिलने वाले लाभों का उनकी नाराजगी से मिलने वाले त्रासों की महात्मे गाथाये गढ़ ली गयी. कितने ही देवताओं का किन्ही पर्व त्योहारों के साथ संबंध जोड़ दिया गया. कइयो के स्थान विशेष जाना आवश्यक माना गया. समझा जाना चाहिए की ईश्वर एक है. उसकी व्यवस्था में अनेक साझीदार नहीं हो सकते ... सम्प्रदायों में ईश्वर की आकृति और प्रकृति अनेक प्रकार की मानी गई है. यदि ये सच मानी जाए तो इनमे से किसी एक को सच्चा और बाक़ी सबको झूठा कहना पड़ेगा. उनके प्रति पूज्य भाव रखते हुए भी ये निर्णय करना कठिन है की परस्पर विरोधी इन प्रतिपादनों में कौन सही और कौन ग़लत है. तत्व दर्शन और विवेक बुध्दी के आधार पर यह मानना पड़ता है की परमेश्वर एक है. सम्प्रदायों की मान्यताओं के अनुसार उसके स्वरूप और विधान सही नहीं हो सकते. वियापक शक्ति को निराकार होना चाहिए. जिसका आकर होगा जो एक देशीय और सीमित रहेगा. कहा भी गया है - 'ना तस्य प्रतिमा अस्ति ' (यजुर्वेद 32:3) अर्थात उसकी कोई प्रतिमा नहीं है. ना स्वरूप ना छवि. आप्त वचनों का एक और भी कथन ऐसा ही अभेद है. उसमे कहा गया है - 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' अर्थात 'एक ही परमेश्वर को विद्वानों ने बहुत प्रकार से कहा है'. यहाँ अन्धो द्वारा हाथी का एक-एक अंग पकड़ कर उसे उसी आकृति का बताये जाने वाली कहानी याद आ जाती है .... तत्वदर्शियो ने सर्वसाधारण की सामान्य बुद्धि को चित्रकारिता के माध्यम से मानवी गरिमा और उत्कृष्टा के लिये आवश्यक धारणाओं और प्रयासों के संबंध रहस्यमय चित्रों में चित्रित किया है. उनका ये अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए की निराकर, और सर्वव्यापी न्यायकारी परमेश्वर की सृष्टि वयवस्था में कोई साझीदार भी है और वह मात्र मनुहार, उपहार, उपचार के आधार पर प्रसन्न-अप्रसन्न होते रहते हैं. पात्रता कुपात्रता का विचार किए बिना शाप वरदान देते रहते हैं, रुष्ट और अप्रसन्न होते रहते हैं. ऐसी मान्यताये अंधविश्वास में गिनी जायेंगी और उन्हें अपनाने वाले को भ्रमित करेंगी. वास्तविकता को कोसो दूर ले जा पटकेंगी . हम में प्रत्येक को यथार्थवादी और तत्वदर्शी होना चाहिए".
श्री राम शर्मा आचार्य (13-16 पेज, अखंड ज्योति, जून 1985)

No comments:

Post a Comment